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- What Is The Condition Of Food, Clothing And Housing Under NDA Rule? Read The Hindu Editorial Of November 4
एक घंटा पहले
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1974 में रिलीज हुई फिल्म रोटी कपड़ा और मकान बेहतरीन रचना मानी जाती है। जिसके प्रोड्यूसर और डायरेक्टर मनोज कुमार थे।
इस फिल्म में उन्होंने गरीबी और गरीबी की वजह से एक आम आदमी को ईमानदारी के जीवन में होने वाली मुश्किल को बड़ी खूबसूरती से दर्शाया है। कई बार जीवन भर गरीबी की एक बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ती है। जैसे कि कम पोषित बच्चे, अधिकतर छोटे कद के रह जाते हैं। इस छोटे कद का असर लोगों पर लंबे समय तक रहता है।
उनके समझने की क्षमता कमजोर रहती है और पढ़ाई में प्रदर्शन खराब रहता है, वयस्क होकर वे कम पैसा कमाते हैं और उनकी प्रोडक्टिविटी भी कम देखी गई है।
वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन ने 2015 में बताया यदि ऐसे बच्चे का बाद के समय में तेजी से वजन बढ़ता है, तो उसे पोषण संबंधी स्थाई बीमारियां हो सकती हैं।
जैसा कि नोबेल विजेता अमर्त्य सेन अपने प्रसिद्ध शोध फैमिन ( 1981 ) में लिखते हैं, भुखमरी खाने की आपूर्ति की कमी से कम और खाने पर अधिकार या उसे खरीदने की क्षमता में कमी होने से ज्यादा होती है।
इसी तरह घर की कमी पर्याप्त संख्या में घरों के न होने से नहीं, बल्कि घरों को किराए पर लेने या खरीदने की क्षमता न होने की वजह से है।गैलप वर्ल्ड पोल सर्वे फॉर इंडिया का ध्यान खाना खरीदने की क्षमता के अभाव और किराए या मकान की खरीद न कर पाने के कारणों पर केंद्रित है। यह सर्वे 2018 से 2021 तक किया गया था।
बढ़ा कर दिखाए गए दावे और कमी का सच
जहां भारत सात सबसे इमर्जिंग मार्केट्स एंड डेवलपिंग इकोनॉमी ( EMDE ) में विश्व की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बनने का ख्वाब देख रहा है, वहीं बढ़ती अमीरी के दावों के बीच 2015–2019–21 में मल्टी डाइमेंशनल पावर्टी इंडेक्स में 9 अंक की गिरावट दिख रही है। इन बड़े हुए दावों के उलट हम खाने और मकान के व्यापक और बढ़ते अभाव पर ध्यान खींचना चाहते हैं।
2018 में सर्वे के दौरान लगभग 40.2% लोगों ने कहा कि उनके पास खाने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है, जबकि 34.7% लोगों ने कहा कि उनके पास रहने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है। 2021 में जहां खाना ना का पाने वालों की संख्या बढ़कर 48% हो गई, वही मकान का पैसा ना दे पाने वालों की संख्या 44.3% हो गई।
यह साफ देखा जा सकता है कि जिन लोगों के पास खाने या रहने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है, वह आमदनी के पहले चरण में है, जबकि सबसे अमीर पांचवे चरण में। इसे ऐसे समझ जा सकता है कि, 2021 में जहां 22% सबसे गरीब लोगों के पास खाने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं था वहीं 40% सबसे अमीर लोगों में भी अभाव को बढ़ते देखा गया।
ऐसा ही मकान के लिए पैसे की कमी में भी दिखता है। 2018–21 के बीच देखा गया कि, मकान के लिए पैसे की कमी झेल रहे लोगों का सबसे बड़ा अनुपात, सबसे गरीब लोगों में और अमीरों में सबसे कम देखा गया है। इसे ऐसे देख सकते हैं की 2021 में मकान के लिए कम पैसे वाले लोगों 20% से ज्यादा सबसे गरीब लोगों में से आते हैं, जबकि अमीरों में इसकी हिस्सेदारी 15% ही है।
हालांकि, आमदनी में बढ़त धीमी है, लेकिन सबसे गरीब लोगों में आमदनी की बढ़त बिल्कुल नहीं है। साफ दिखने वाले इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट जैसे बुलेट ट्रेन, अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे, हाईवे पर जबरदस्त ध्यान दिया जा रहा है, और खेती, छोटे और मध्यम उद्योग तथा कमजोर सामाजिक सुरक्षा को पूरी तरह से उपेक्षित किया जा रहा है, जो की एक हिस्सेदारी वाले फैक्टर हैं।
गरीबी पर जाति का प्रभाव
हाल ही में जाति जनगणना पर मचे हो-हल्ले और विशेष रूप से अन्य पिछड़ी जातियों की गरीबी, 2023–24 के राज्य और केंद्र के चुनाव के द्वारा सत्ता तक पहुंचने के लिए एक राजनीतिक प्रोपेगेंडा मात्र नहीं है, बल्कि समीक्षा में लंबे समय से स्थापित ये आर्थिक और सामाजिक प्रभाव असली है।
गैलप वर्ल्ड पोल की जातिगत आधार पर तुलना करने पर दिखा कि वह लोग जो पर्याप्त खाना नहीं खरीद सकते, उनका अधिकांश हिस्सा OBC (34.2%) वर्ग में है, जिसके बाद अनुसूचित जाति और जनजाति (32.3%) है, जबकि अनारक्षित वर्ग में (23.6%) है। अनुसूचित जनजाति ( ST ) का हिस्सा सबसे छोटा इसलिए है, क्योंकि ज्यादातर लोग दूर पहाड़ों और जंगलों में रहते हैं, जहां वो स्थानीय तौर पर मिलने वाले खाने पर आश्रित रहते हैं।
2018 और 2021 के बीच ओबीसी का हिस्सा (31.5 %) घटने के बाद भी सबसे अधिक है, इसके बाद अनुसूचित जाति के हिस्से (29.9%) में भी गिरावट दर्ज की गई, जबकि अनारक्षित में हिस्सेदारी तेजी से बढ़ कर (30.8%) हो गई है। हालांकि, राजनीतिक समूह ने OBC और SC वर्ग में गरीबी को कम करने के लिए काम किया लेकिन अनारक्षित वर्ग को खुद के हाल पर छोड़ दिया।
मकान के अभाव का हाल भी इससे बहुत अलग नहीं है। 2018 में मकान के लिए पैसे की कमी सबसे अधिक SC वर्ग (32.5%) में देखी गई, जिसके बाद OBC में यह हिस्सा 31.6% रहा।
सबसे कम हिस्सेदारी अनारक्षित वर्ग (23.9%) की रही, और जनजाति को इसमें शामिल नहीं किया गया है। SC वर्ग की हिस्सेदारी गिरी है, लेकिन OBC और अनारक्षित वर्ग की हिस्सेदारी बढ़ गई है। संभव है कि राजनीतिक समूहों ने OBC वर्ग के खाने की कमी पर ज्यादा ध्यान दिया, लेकिन मकान की कमी पर कम ध्यान नहीं दिया।
2021 में खाने और मकान के लिए पैसे की कमी से जूझ रहे लोगों में 50% से अधिक संख्या 25 से 45 साल के लोगों की है। हम अनुमान लगा सकते हैं कि कम दिहाड़ी या वेतन मिलने से खाने और मकान पर खर्च करने की क्षमता कम हो जाती है।
शहरी और गांव की स्थिति बिल्कुल अलग
खाने के लिए पैसे की कमी झेल रहे लोगों की 80% से अधिक आबादी गांव में रहती है, जबकि शहरों में ऐसे लोग 20% से भी कम हैं। हालांकि गांव का हिस्सा कम हुआ है, लेकिन शहरों का हिस्सा बढ़ गया है। पहले की तुलना में शहरी हिस्सेदारी दोगुनी हो गई है। शहरों और गांव में ऐसा ही अंतर मकान के अभाव में भी दिखता है।
मकान के लिए पर्याप्त पैसे की कमी से जूझते ज्यादातर लोग गांव में रहते हैं, और ऐसे लोगों की हिस्सेदारी कम हुई है लेकिन शहरों में यह हिस्सेदारी बड़ी है। कोविड-19 के बाद ऐसा नहीं लगता कि शहरों में, गांव से अच्छे रोजगार के लिए पलायन और बढ़ती झुग्गियां इसके लिए जिम्मेदार हैं।
औद्योगिक और कृषि विकास को बढ़ाने में हार की भरपाई के लिए पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम को आधा अधूरा समर्थन दिया गया। कोई आश्चर्य नहीं कि, इसकी खाने तक पहुंच को बढ़ाने में कोई बहुत असर नहीं रहा है, इसके उलट, प्रधानमंत्री आवास योजना से काफी हद तक मकान की कमी में सुधार आया है लेकिन इसका आर्थिक दायरा अभी भी बहुत कम है।
NDA में भरोसा अधिक रहा है, जिसके पीछे हिंदुत्व, अत्यधिक केंद्रीकरण और व्यक्ति विशेष की छवि रही है। रिसर्च से यह पता चला है कि NDA में बहुत ज्यादा भरोसे से खान और मकान की कमी में बढ़त हुई है। बचाव करने वाली नीतियां, दोष पूर्ण तरीके से लगाए नए रोजगार मेले ( जैसे, रोजगार की खोज को कम करने वाले ), राजनीतिक हितों को साधने के लिए बड़े प्रोजेक्ट के लोकेशन का चुनाव और चंद निवेशकों को ही अधिक से अधिक ठेके देने की नीतिगत गलतियां कर रही हैं।
नए रोजगार पैदा करने की गतिविधियां को लेकर उदासी और कमजोर होते सामाजिक सुरक्षा, और फंडिंग में गड़बड़ी से राजनीति और अर्थव्यवस्था को खतरा है। 2018 से 2021 के शोध में पाया गया कि सत्ता की व्यवस्था में बहुत अधिक भरोसे से खाने और मकान का अभाव बढ़ा है।
लेखक: आशी गुप्ता, दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, दिल्ली यूनिवर्सिटी में डॉक्टोरल कैंडिडेट हैं। वाणी एस कुलकर्णी और राघव गईहा, पॉपुलेशन स्टडीज सेंटर, यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिलवेनिया, अमेरिका में रिसर्च एफिलिएट हैं।
Source: The Hindu
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