Saturday , 2 August 2025
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Press needs freedom. ‘Breaking news’ culture is dangerous for the press, read the hindu article written by Shashi Tharoor. | The Hindu हिंदी में: प्रेस को स्वतंत्रता की जरूरत है ‘ब्रेकिंग न्यूज’ कल्चर प्रेस के लिए खतरनाक बन रहा है, पढ़िए शशि थरूर का लिखा आर्टिकल

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4 घंटे पहले

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1991 में उदारीकरण के बाद से ऑडियो-विजुअल (देखने-सुनने) मीडिया ने खुद को बदल दिया है। आज ब्रॉडकास्ट मीडिया और आर्थिक विकास का सरकारी नियंत्रण से मुक्त होना जरूरी है।

क्योंकि, इंटरनेट इन सभी के लिए गुणवत्ता में न सही नंबर के मामले में जरूर विस्फोट बन सकता है।

इस प्रक्रिया में भारतीय पत्रकारिता पूरी तरह बदल गई है लेकिन ये हमेशा अच्छी बात नहीं है।

मीडिया में अब ‘ब्रेकिंग न्यूज’ कल्चर बढ़ गया है, जो कि खतरनाक है और एक विलेन की तरह काम करता है। ऐसा लगता है खबर को तोड़ना चाहिए और इंसान को भी।

मीडिया ‘ब्रेकिंग न्यूज’ यानी सनसनी को विशेषाधिकार देती है। भारतीय टीवी पुराने व्यंग्य वाद (कटाक्ष) का उदाहरण है कि क्यों टेलीविजन को ‘मीडियम’ कहा जाता है, क्योंकि ऐसा भी नहीं है कि ये कुछ अलग हो या इसमें अभी तक कुछ सही ढंग से न किया गया हो।

चौथा स्तंभ आज एक साथ गवाह, आरोपी, जज, जूरी और जल्लाद की तरह काम करता है। पुराने समय में भारत अपने अपराधियों को अग्नि परीक्षा करवाता था, जिसमें आग से गुजरना होता था। आज हमने मीडिया को इस जगह पर रख दिया है।

सोशल मीडिया इस कल्चर के साथ असत्यापित (अनवैरिफायड) और वायरल खबरों के कल्चर को आगे बढ़ा देता है। ये ऐसी खबरों, ऐसे कंटेंट को आगे बढ़ने का मौका देता है, जो संपादकीय जांच से गुजर नहीं पाती हैं।

अफसोस की बात ये है कि प्रिंट मीडिया में संदर्भ, गहराई और विश्लेषण करने की पूरी क्षमता के बावजूद, प्रिंट मीडिया बहुत बेहतर नहीं है, जबकि ये सब टेलीविजन नहीं कर सकता।

हालांकि, प्रिंट मीडिया भी प्रभावित हुआ है। पत्रकार 24×7 ब्रेकिंग न्यूज के जाल और सोशल मीडिया के साथ बने रहने की कोशिश कर रहे हैं। पत्रकार खबरों को फैक्ट चेक करने के बिना ही प्रकाशित करने के दबाव में होते हैं।

इसका असर ये है कि हमारा मीडिया, कहानी को टेलिकास्ट करने की जल्दबाजी में फैसला लेकर उसी लीक पर चलने लगता है और दुर्भावनापूर्ण आरोपों का हिस्सेदार बन जाता है।

इस आरोपों की रिपोर्ट बिना सोचे समझे की जाती है और संपादक इन खबरों को लेकर बुनियादी सवाल भी नहीं पूछते हैं।

ये नुकसान भद्दी-भद्दी सुर्खियों को चलाकर किया जा रहा है, और यदि कोई सुधार किया भी जाता है, तो निर्दोष लोगों का आरोप लगने से जो नुकसान होता है, उसकी भरपाई नहीं की जा सकती या उस भरपाई में बहुत देर हो चुकी होती है।

ये बेहतर समझ वाले भारतीयों के लिए एक गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए, क्योंकि स्वतंत्र मीडिया हमारे लोकतंत्र की जीवन रेखा है।

मीडिया ऐसी जानकारी देता है, जो स्वतंत्र नागरिकों को ये सोचने के काबिल बनाता है कि उन पर शासन कौन करता है और कैसे? और इसमें ये भी तय किया जाता है कि जो शासन करते हैं, वे उन लोगों के लिए जवाबदेह रहेंगे, जिन्होंने उन्हें वहां बैठाया है।

ये मीडिया का काम है कि वह सत्ता में बैठाए गए लोगों के काम (या निष्क्रियता) को आलोचनात्मक ढंग से देखे, न कि उनको हाशिए पर रखे, जिनका जन कल्याण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

जबकि इसके बजाय, उथली और सनसनीखेज चीजों के प्रति मीडिया का जुनून सार्वजनिक बहस को कमजोर कर देता है और लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया की जो जिम्मेदारी है, उसको खत्म कर देता है और जवाबदेही के असल सवालों से जनता का ध्यान भटकाने के हथियार की तरह काम करता है।

शासित को सरकार का सामना करना चाहिए।

इन चिंताओं और आलोचनाओं के बावजूद, मैं स्वतंत्र प्रेस के प्रति पूरी तरह से समर्पित हूं।

मैंने हमेशा इसके खतरे को महत्व दिया है। (जैसे कैनरी पक्षी की तस्वीर जिसे ये देखने के लिए खदान के नीचे भेजा जाता है कि अंदर ऑक्सीजन है या नहीं। यदि वो मृत होकर वापस आता है तो, आप समझते हैं कि खनिकों को अंदर भेजा जाना ठीक नहीं है)

ठीक इसी तरह स्वतंत्र प्रेस उस कैनरी (पक्षी) की तरह है, यदि उसका दम घुट रहा है या उसे घुटन हो रही है, तो ये साफ है कि समाज अब हमारे लिए सुरक्षित नहीं है।

सरकार को ईमानदार और बेहतर बनाए रखने के लिए एक स्वतंत्र और पेशेवर मीडिया की जरूरत है, जो आईने की तरह (समाज के लिए) और स्केलपेल (गलत कार्यों की जांच करने के लिए) दोनों के रूप में काम कर सके।

यदि इसके बजाय हमारे पास सिर्फ बेकार हथियार है, तो समाज बेहतर नहीं होगा। स्वतंत्र प्रेस हमारे देश की आजादी को एक साथ जोड़ने वाला मसाला और उन ईंटों में लगी खुली खिड़की दोनों ही है।

कोई भी भारतीय डेमोक्रेट सेंसरशिप, या स्वतंत्र प्रेस पर नियंत्रण की मांग नहीं करेगा।

जैसा कि पहले भी तीन बार हुआ है, ये बेहद बुरी बात है कि हमारी वर्तमान सत्ता ने समाचार पत्रों को धमकाया है और सरकारी फायदों के खिलाफ समाचार प्रकाशित करने के लिए टीवी चैनलों को बाधित कर दिया है।

कुछ सालों में, UAPA के तहत पत्रकारों को गिरफ्तार किया जाता है, और उन्हें जमानत देने से इनकार कर दिया जाता है। डेमोक्रेट जो करना चाहते हैं वो कम पत्रकारिता नहीं, बल्कि बेहतर पत्रकारिता है।

हम वहां कैसे पहुंचे?

सबसे पहले, हमें फैक्ट्स को चेक करने और सही खबरों के कल्चर को विकसित करना होगा, जिसकी आज के समय में कमी दिखती है।

दूसरा, हमें मान्यता प्राप्त मीडिया संस्थानों में बेहतर पत्रकारिता ट्रेनिंग पर जोर देना चाहिए, जो अपने छात्रों को सच्चे, ईमानदार और निष्पक्ष मूल्यों पर जोर देते हों।

इन स्टैंडर्ड को मीडिया पर लागू किया जाना चाहिए। जब झूठे दावे या जानबूझकर भ्रम फैलाने वाले बयान टेलीकास्ट किए जाते हैं, तो टीवी और प्रिंट समाचार आउटलेट को प्रमुखता के साथ वापस करने की जरूरत है।

तीसरा, हमें अपने न्यूज रूम में अलग-अलग तरह की समझ को स्वीकारना चाहिए और उन्हें ‘देश जानना चाहता है’ की आड़ में अपने दर्शकों पर एक सोच थोपने की गूंज न्यूज रूम में नहीं बनने देना चाहिए।

अलग-अलग तरह की पत्रकारिता का माहौल बनाए रखने के लिए न्यूज रूम की जरूरत होनी चाहिए।

किसी सोच को जोड़ने वाली हर एक कहानी को विकल्प या खारिज करने के लिए कुछ जगह देना जरूरी है।

चौथा, पत्रकारों को अपने दर्शकों और पाठकों की टिप्पणियों और फीडबैक का स्वागत करना चाहिए, ताकि दर्शकों और मीडिया के बीच भरोसे का माहौल पैदा हो और जनता की ओर से यह महसूस हो कि वे सिर्फ एक सोच को लेने वाले नहीं हैं।

द हिंदू उन अखबारों में से एक है जिसके पास एक पाठक संपादक है, जो अखबार के लिए लोकपाल के रूप में कार्य करता है और अखबार के कवरेज में तथ्य या जोर की गलतियों को स्वीकार करता है।

इससे अखबार और उसके पाठकों के बीच वफादारी और जुड़ाव का एक स्वाभाविक चक्र चलाने में मदद मिलती है।

पांचवां, सरकार को ऐसे कानून और नियम लागू करने चाहिए जो एक ही व्यवसाय या राजनीतिक इकाई द्वारा कई समाचार संगठनों पर नियंत्रण करते हैं, जिससे देश में एक स्वतंत्र और मजबूत प्रेस को बढ़ावा मिलता है।

एक शक्तिशाली व्यावसायिक फायदा, जो सरकारी दबाव को लेकर मुखर है, आमतौर पर नैतिक पत्रकारिता संबंधी चिंताओं पर हावी हो जाएगा।

भारत उन कुछ प्रमुख देशों में से एक है, जहां अपने समृद्ध नागरिकों द्वारा मीडिया के स्वामित्व की बात आने पर हाल ही में कोई प्रतिबंध मौजूद नहीं है।

जब मैंने इसकी अध्यक्षता की थी। प्रिंट और टेलीविजन समाचार कंपनियों के लिए भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण और सूचना प्रौद्योगिकी पर संसदीय समिति द्वारा एक जैसी सिफारिश की गई थी।

हमारे मीडिया पर कॉर्पोरेट और राजनीतिक दिग्गजों की शक्ति को सीमित करने और मीडिया को बढ़ावा देने में मदद मिलेगी। अभी तो इससे भी अच्छा आना बाकी है। भारत की जनसंख्या दिन-ब-दिन अधिक पढ़ी लिखी होती जा रही है, जिसके परिणामस्वरूप मीडिया उपभोक्ताओं की संख्या लगातार बढ़ रही है।

लेकिन वे एक ऐसे मीडिया के हकदार हैं, जो एक सूचित, शिक्षित और राजनीतिक रूप से जागरूक भारत को आकार देने में योगदान दे, जो अपनी सरकारों को जवाबदेह बनाने के लिए तैयार हो, अपने समाज को सुरक्षित रखने के लिए तैयार हो और इसके लोग सीमाओं को पार करने के लिए तैयार हों।

यदि भारत चाहता है कि एक जिम्मेदार वैश्विक खिलाड़ी और 21वीं सदी के मॉडल लोकतंत्र के रूप में बाकी दुनिया उसे गंभीरता से ले, तो हमें खुद को भी गंभीरता से और जिम्मेदारी से लेना होगा।

हमारा मीडिया इसकी शुरुआत करने के लिए एक अच्छी जगह होगी।

लोकतंत्र में चौथे स्तंभ का अपनी जगह से खिसक जाना एक गंभीर चिंता का विषय है और चीजों को फिर से ठीक करने के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

लेखक: शशि थरूर
Source: The Hindu

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