[ad_1]
- Hindi News
- Career
- Israel Hamas War Has Completely Changed Politics At The Regional Level, Read The Hindu Editorial Of November 18
एक घंटा पहले
- कॉपी लिंक

एक रणनीतिक बदलाव ने दो पुराने गठबंधन को फिर मजबूत कर दिया। 7 अक्टूबर तक पश्चिम एशिया के भू-राजनीति में यही सबसे बड़ी शक्तियां थीं। सभी एक दूसरे से जुड़े हुए थे।
द्वितीय विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद उभरे सुपर पावर, यूनाइटेड स्टेट्स ने अपना राजनीतिक ध्यान पुराने प्रतियोगियों पर केंद्रित करना शुरू कर दिया था। मगर इस क्षेत्र में अपनी पकड़ और मतलबों की रक्षा के लिए अमेरिका ने वहां की राजनीति के दो स्तंभ इजराइल और गल्फ अरब के बीच शांति स्थापित करने के प्रयास किए।
अब्राहम एकॉर्ड इसी नीति का नतीजा था, जिसे डोनाल्ड ट्रंप शासन ने शुरू किया और अमेरिकी प्रेसिडेंट जो बाइडेन ने भी अपनाया। एक आम यहूदी-अरब मोर्चे में शांति हो जाने से, अमेरिका अपने संसाधन इस क्षेत्र से हटा कर उसका इस्तेमाल कहीं और कर सकेगा।
वहीं, दूसरी और अमेरिका द्वारा पश्चिमी एशिया में अपनी प्राथमिकता कम करने से गल्फ अरब देश को अपनी विदेश नीति में बदलाव करके इस क्षेत्र को और स्थिर करने का मौका मिलेगा। इससे चीन को इस क्षेत्र में एक शांति स्थापित करने वाले की भूमिका अदा करने का मौका मिलेगा।
इसी का परिणाम रहा ईरान सऊदी रिकॉन्सिलिएशन एग्रीमेंट, गल्फ के अधिकतर देशों से चीन के रिश्ते अच्छे हैं। सऊदी और ईरान के रिश्तों में नरमी आने से अमेरिका ने अब्राहम अकॉर्ड पर और अधिक जोर दिया।
बाइडेन प्रशासन ने खुद सऊदी और इजराइल के बीच रिश्ते सुधारने के प्रयास किए। अमेरिका को इस समझौते पर इतना यकीन था कि उसने इसी साल इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर का प्रस्ताव रखा।
इस प्रस्ताव के लिए अरब-इजराइल शांति जरूरी है, और इससे इस क्षेत्र में चीन के प्रभाव को रोकने में मदद मिलेगी। इसके बाद 7 अक्टूबर को इजराइल पर हमास का हमला हो गया।
फिलिस्तीन का दोबारा स्थानीय मुद्दे में परिवर्तन
हमास, जो 2007 से अब तक गाजा पर नियंत्रण किए हुए है, इसने दोनो बदलावों को अलग तरह से देखा। हमास एक सुन्नी इस्लामिक सैन्य संगठन है, जिसके लिए ईरान और सऊदी अरब का साथ आना सुखद परिवर्तन है।
जहां ईरान एक शिया रिपब्लिक है और वर्षों से हमास का समर्थन करता रहा है, वही सऊदी अरब एक सुन्नी राजशाही है, जो हमास के राजनीतिक इस्लाम से खुद को दूर करती रही है। हालांकि, इजराइल जिसने फिलिस्तीनी क्षेत्र पर 1967 से कब्जा कर रखा है, उसके साथ सऊदी अरब की नजदीकी हमास के लिए एक झटका है।
1978 में कैंप डेविड समझौता हुआ। इजिप्ट ने इजराइल से इस समझौते पर हस्ताक्षर करवा कर 1990 के दशक के ओसलो प्रक्रिया को नींव रखी। 1993 में पहले ओस्लो समझौते पर हस्ताक्षर के बाद ही जॉर्डन ने इजराइल के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए, मगर जब यूनाइटेड अरब अमीरात ( UAE ), बहरीन और मोरक्को ने अब्राहम एकॉर्ड पर हस्ताक्षर किए, तब इजराइल ने फिलिस्तीनियों को कोई राहत नहीं दी।
यह सबसे स्पष्ट संकेत था कि अरब, खास तौर पर गल्फ के अरब इजराइल के साथ बातचीत में फिलिस्तीन के सवाल को छोड़ने के लिए तैयार थे। इससे इजराइल को फिलिस्तीन के मुद्दे को स्थानीय मुद्दे में बदल में सफलता मिली, जिसके तहत यह एक सुरक्षा संकट था और कब्जे को जारी रखते हुए भी किसी नतीजे की चिंता नहीं करनी थी।
जब सऊदी अरब और इजराइल बात कर रहे थे, किसी ने इजराइल के सबसे दक्षिणपंथी सरकार का नेतृत्व कर रहे बेंजामिन नेतन्याहू सरकार से फिलिस्तीन के लिए राहत की उम्मीद नहीं की।
इस सरकार को चरमपंथी और अति रूढ़िवादी जियोनिस्ट लोगों का समर्थन है। इसलिए समझा जा सकता है, 7 अक्टूबर का हमला करके इस मुद्दे को स्थानीय सीमाओं से निकाल कर अंतरराष्ट्रीय बनाना था, साथ ही सऊदी और इजराइल के शांति स्थापित करने के प्रयासों को भी विफल करना था।
हमास हमले के बाद इजराइल की बदले की कार्रवाई में गाजा पट्टी के कम से कम ग्यारह हजार से अधिक फिलिस्तीन लोग मर चुके हैं। इनमें से अधिकतर मरने वालों में महिलाएं और बच्चे हैं, जिससे फिलहाल के लिए हमास ने अपना लक्ष्य पा लिया है।
इस परिस्थिति को अरब कैसे देखते हैं अरब और इजराइल दोनों ही फिलिस्तीन के सवाल को पीछे छोड़कर नई साझेदारी के लिए रास्ता तैयार कर रहे थे। लेकिन 7 अक्टूबर के बाद इस क्षेत्र की नई हकीकत सामने आ गई। फिलिस्तीन का मुद्दा एक बार फिर पश्चिम एशिया के भू-राजनीतिक स्थिति के केंद्र में आ गया।
दूसरा, गाजा पर इजराइल के बे हिसाब और बे लगाम हमले ने अरब की सड़कों पर विशाल आंदोलन को जन्म दे दिया। इससे अरब के राजशाही और तानाशाही पर दबाव बढ़ गया है। 10 साल पहले सड़कों पर उग्र जन आंदोलनों ने अरब में सत्ता परिवर्तन कर दिया था। इस घटना के गवाह अरब देश, पूरे अरब में फिलिस्तीन के लिए बढ़ रही सहानुभूति और इजराइल के लिए आक्रोश के प्रति अपनी आखें बंद नही कर सकते।
तीसरा, ईरान का असर इस क्षेत्र पर हमेशा बना रहता है। जब से फिलिस्तीन का मुद्दा दोबारा स्थानीय हुआ है, ईरान ने फिलिस्तीन के लिए अपने समर्थन को बढ़ाया है और साथ ही इजराइल के खिलाफ एक होकर आवाज उठाने की बात की।
वहीं दूसरी ओर ईरान के पक्ष में युद्ध करने वाले संगठन, यमन में हाउथीस और लेबनान में हिजबुल्ला ने इजराइल पर सीमित हमले किए हैं। ईरान मुस्लिम देशों का नेतृत्व करने की कोशिश कर रहा है, जिससे शिया और सुन्नी समाज की दूरियां कम हो जाएं।
इससे सऊदी अरब और अन्य अरब देशों के सामने विकल्प मुश्किल हो गए हैं, या तो वे अरब की आम जनता में बढ़ रही नाराजगी को अनदेखा करके ईरान को फिलिस्तीनी उद्देश्य के लिए काम करने दें और खुद इजराइल के साथ शांति समझौते पर बात करें या किंग अब्दुल्लाह के पहले प्रयास की तरफ बढ़ें।
इस प्रयास में फिलिस्तीन को 1967 की बॉर्डर की स्थिति के आधार पर आजाद देश घोषित कराना था। इसके बदले अरब देश इजराइल को मान्यता दे देते।
सऊदी ने गाजा के मुद्दे पर इस्लामिक बैठक बुलाई जिसमे ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी भी शामिल हुए और फिलिस्तीन के उद्देश्य को क्षेत्र की स्थिरता और शांति के लिए जरूरी बताया। मुहम्मद बिन सलमान, सऊदी क्राउन प्रिंस ने फिलिस्तीन के मुद्दे को इजराइल के साथ बातचीत के साथ जोड़ा। यह इजराइल और अमेरिका दोनों के लिए झटका है।
अमेरिका अभी भी उम्मीद कर सकता है कि माहौल शांत होने के बाद अब्राहम अकॉर्ड को एक बार फिर शुरू किया जाए। यह पूरी तरह से संभव है, लेकिन यह साफ नहीं है कि नेतन्याहू की गाजा में अंतिम योजना क्या है। उन्होंने यह संदेश दिया है कि इजरायली सेना क्षेत्र के सुरक्षा मामलों में अपनी भूमिका निभाती रहेगी।
जिसका मतलब है इजराइल उन सभी इलाकों, जहां से वह 2005 मैं पीछे हट गया था वहां दोबारा कब्जा कर लेगा। अमेरिका ने सुझाव दिया की जंग खत्म होने के बाद फिलिस्तीन अथॉरिटी जो की वेस्ट बैंक में सीमित शक्तियों के साथ नेतृत्व कर रही है, वह गाजा का भी नियंत्रण अपने पास रख ले।
हालांकि, नेतन्याहू ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया है, इसलिए यदि इजरायल इस इलाके पर दोबारा कब्जा करता है जहां 22 लाख लोग गरीबी और तनाव में जी रहे हैं, हिंसा की मौजूदा लहर एक लंबे पारी के शुरुआत भर रहेगी।
स्थानीय घटनाओं की गतिशीलता
चीन की मध्यस्थता में ईरान–सऊदी सुलह, अमेरिका के लिए झटका है। हाल के वर्षों में अरब देशों ने अधिक स्वायत्त होने की इच्छा दिखाई है। UAE और सऊदी अरब ने यूक्रेन युद्ध के बाद रशिया पर लगे अमेरिकी प्रतिबंध में हिस्सा नहीं लिया।
अमेरिका के आग्रह और आदेशों के बावजूद, सऊदी अरब ने अपने संगठन पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज (OPEC) प्लस में रुशिया को भागीदार बनाए रखा। चीन गल्फ में एक बड़ी भूमिका निभा रहा है, जिसमे UAE के अंदर एक सैन्य फैसिलिटी बनाने की गुप्त योजना शामिल है।
मौजूदा संकट ने इस स्थानीय गतिशीलता में तेजी ला दी है। सऊदी–इजराइल शांति योजना के विफल हो जाने के बाद और ईरान के राष्ट्रपति के सऊदी साम्राज्य में आकर गाजा पर इजराइल के हमले की चर्चा के बाद, अमेरिका की मध्यस्थता वाले अब्राहम एकॉर्ड की सीमाएं दिखने लगी हैं।
साथ ही चीन की मध्यस्थता वाले ईरान–सऊदी सुलह का दायरा बढ़ा है।
गाजा की स्थिति 2005 के दोनों जैसी हो गई है, लेकिन भू राजनीति की सच्चाईयां 2000 के दशक के शुरुआती दिनों से अलग है, जब अमेरिका इस क्षेत्र की अकेली महाशक्ति थी।
नजदीकी भविष्य में रशिया और चीन पश्चिम एशिया में अमेरिका का स्थान नहीं ले पाएंगे। अमेरिका की इस क्षेत्र में मजबूत सैन्य मौजूदगी है, लेकिन अन्य महा शक्तियों के शामिल होने से इस क्षेत्र के भागीदारों को अधिक चाल चलने का मौका मिलेगा।
नेतन्याहू के साथ करीबी और गाजा पर नेतन्याहू के क्रूर और अंतहीन हमले से बाइडेन प्रशासन ने अमेरिका को इस क्षेत्र में मुश्किल में डाल दिया है। यह क्षेत्र पहले ही निरंतर परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है।
लेखक: स्टेनली जॉन
Source: The Hindu
Source link