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How Maoists’ announcement of election boycott is losing its effect, read the hindu editorial of November 28 | कैसे माओवादियों की चुनाव बहिष्कार की घोषणा अपना असर खो रही है, पढ़िए 28 नवंबर का एडिटोरियल

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8 घंटे पहले

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छत्तीसगढ़ में हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव को रोकने के लिए बेचैन माओवादी समूहों को अपने ही गुरिल्ला अड्डों में हार का मुंह देखना पड़ा है। CPI (माओवादी) ने जो इलेक्शन के बहिष्कार की घोषणा की थी उसका बहुत असर नहीं दिखा है।

वीणा तो वोट लोगों को वोट देने से रोक पाए नहीं हिंसा के जरिए इलेक्शन को रोक पाए। इस बार सुरक्षा बलों ने पिछले 5 सालों में फॉरवर्ड एरिया में नए कैंप बनाकर अपनी पहुंच बढ़ा ली है और इससे उन्हें राज्य में शांति के साथ चुनाव कराने में मदद मिली है।

सुरक्षा बल बनाम माओवादी

छत्तीसगढ़ के 14 जिले लेफ्ट विंग कट्टरपंथियों (LWE) की कारवाइयों से प्रभावित हैं; यह सभी MHA( मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स) की सुरक्षा से जुड़े खर्चों की स्कीम (SRE) के तहत आर्थिक मदद पाते रहते हैं। 2018 के पिछले विधानसभा चुनाव से छत्तीसगढ़ को CRPF की पांच अतिरिक्त बटालियन दी गई है( 44 बटालियन पहले से ही तैनात थे)।

कई कंपनियां के रिडिप्लॉयमेंट से SRE जिलों में 75 से अधिक नए सुरक्षा कैंप बन गए हैं, इनमें ज्यादातर बस्तर जिले में हैं। साथ ही बस्तर फाइटर फोर्स में बस्तर क्षेत्र के सात जिलों के 2000 स्थानीय जवानों (जिनमें 460 महिलाएं शामिल हैं) के शामिल होने से वोटों की सुरक्षा में मदद मिली है। माओवादियों को दूर रखने में भी इस फोर्स की महत्वपूर्ण भूमिका है।

जहां बस्तर क्षेत्र के सभी सात जिले और (दक्षिण) राजनांदगांव में दंडकारण्य स्पेशल जोन (DKSZ) का प्रभाव है; वहीं छत्तीसगढ़ के उत्तरी राजनांदगांव, कबीरधाम और मुंगेली जिले पर महाराष्ट्र–मध्य प्रदेश–छत्तीसगढ़ (MMC) स्पेशल जोन का प्रभाव है।

गरियाबंद, धमतरी और महासमुंद जिले जो उड़ीसा की सीमा से लगे हुए हैं, उन पर उड़ीसा स्टेट कमिटी के प्रतिबंधित CPI (माओवादी) का प्रभाव है। एक जिला बलरामपुर (उत्तरी छत्तीसगढ़) जो झारखंड की सीमा से लगा हुआ है कुछ हद तक झारखंड रीजनल कमिटी के कोल–शंख जोन (बिहार–झारखंड स्पेशल एरिया कमेटी) से प्रभावित है। हालांकि MMC जोन नया है, माओवादी DK में 1980 के दशक से एक्टिव हैं।

CPI (माओवादी) के लेख ’स्ट्रेटजी एंड टैक्टिक्स ऑफ द इंडियन रिवोल्यूशन’ में साफ लिखा हुआ है कि चूंकि भारत के संसदीय सिस्टम को भीतर से उजागर करने की कोई व्यवस्था नहीं है, ऐसे में सीधे प्रचार और चुनाव के बहिष्कार के नारे के आधार पर लोगों को संसद और चुनाव के खिलाफ इकट्ठा करना चाहिए।

इस सुरक्षा की स्थिति और माओवादी रणनीति को देखते हुए, विधानसभा चुनावों पर माओवादी बहिष्कार की घोषणा के प्रभाव को देखना जरूरी होगा।

बेहतर और सुरक्षित चुनाव

माओवादियों ने अपनी रूल बुक के अनुसार काम किया और पर्चे जारी किए, कुछ दीवारों पर पेंट किया और LWE प्रभावित क्षेत्रों में बैनर लगाए। नौ SRE जिलों (सात गंभीर रूप से प्रभावित जिलों सहित) में 20 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव पहले चरण में 7 नवंबर को और बाकि बचे जिलों के 70 सीटों (पांच SRE जिलों सहित) के लिए 17 नवंबर को हुए थे। LWE के नजर से पहला चरण महत्वपूर्ण था।

बस्तर रेंज में मतदान बूथों की संख्या बढ़ने (126 तक) और रीलोकेटेड बूथों में कमी (44 तक) के साथ, सुरक्षा बलों के लिए चुनौती अधिक बड़ी थी। खास तौर पर सुकमा, दंतेवाड़ा और बीजापुर के दक्षिणी जिलों में अधिक समस्या थी, जहां माओवादियों ने दावा किया था कि रिवॉल्यूशनरी पीपल्स काउंसिल (RPCs) यानी जनता सरकार पिछले चुनावों में बहिष्कार को प्रभावी करने में अधिक सफल थी।

सुकमा में (सबसे बुरी तरह प्रभावित जिलों में से एक), मतदान में लगभग 8% की कुल की बढ़त दर्ज की गई है (करीब 55% से करीब 63% तक)। सभी आंतरिक क्षेत्रों जैसे मिनापा, इल्मागुंडा, करिगुंडम और पोंगाभेजी (माओवादियों ने वोट देने वालों के हाथ काटने की धमकी दी थी) जहां माओवादी सैन्य समूहों की अच्छी मौजूदगी थी और मतदान न के बराबर हुआ करता था, इस बार मतदान प्रतिशत 40% से 60% तक रहा।

हालांकि सुरक्षा बलों ने जिले में कई IEDs बरामद किए थे, एक जवान इल्मागुंडा के पास IED धमाके में घायल हो गया और दो जवान मिनापा के पास गोलीबारी में घायल हो गए थे। दंतेवाड़ा में (14 नए मतदान बूथों के बनने के साथ) न केवल मतदान प्रतिशत में 9% से अधिक की बढ़त हुई, बल्कि बूथों के रीलोकेशन में दो-तिहाई की कमी आई है (यानी 21 से 7 तक)।

पोटाली गांव में, जहां माओवादियों (ग्रामीणों की आड़ में) ने 2021 में सुरक्षा कैंप बनाने का काफी समय तक जबरदस्त विरोध किया था, मतदान प्रतिशत लगभग 45% था (2018 के चुनावों में करीब 1% की तुलना में )। ऐसे और भी कई मतदान केंद्रों के उदाहरण मौजूद हैं। कांकेर और गरियाबंद जिले में IED धमाके में दो जवानों की मौत हुई है (दोनों जिलों एक-एक जवान)। इसके अलावा नारायणपुर के एक बीजेपी पदाधिकारी की माओवादियों द्वारा हत्या कर दी गई है।

कांकेर में सुरक्षा बलों ने एक AK-47 भी बरामद किया है, लेकिन सभी SRE जिलों में चुनाव बिना रूकावट के पूरे हुए हैं। कम रीलोकेशन और पैतृक गांवों के पास कई नए बूथ बन जाने से वोटरों को कम दूरी तय करनी पड़ी। माओवादियों द्वारा बहिष्कार की घोषणा पर अब कम लोग ध्यान देते हैं। हालाँकि पहले चरण में कुल मतदान में लगभग 1.5% की बढ़त हुई (76.5% से 78% तक), लेकिन गुरिल्ला अड्डों में अधिक लोग अपने वोट डालने के लिए आगे आए।

यह माओवादियों के इस दावे को झूठा साबित कर देता है कि गांव के लोग उनकी विचारधारा से राजनीतिक रूप से प्रभावित हैं, और अपने आप वोट नहीं करते हैं। माओवादियों के RPCs द्वारा की गई जुबानी जमाखर्च और हिंसा के लिए उकसाने वाली सोच गांव के लोगों पर अपना असर डालने में विफल रही हैं।

यदि बस्तर के कुछ बचे हिस्सों में अभी भी मौजूद सुरक्षा कमियों को सही कर दिया जाता है, तो वह दिन दूर नहीं जब बहिष्कार की घोषणा का असर पूरी तरह ख़त्म हो जायेगा। इस साल छत्तीसगढ़ के विधान सभा चुनाव में बढ़ी हुई वोटिंग और बहुत कम हिंसक घटनाएं इस बात का सबूत हैं कि बॉयकॉट की घोषणा अपना असर खोती जा रही है।

लेखक: आर. के. विज

Source: The Hindu

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