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Thinking of working 70 hours every week can reduce your productivity, read the hindu editorial of November 8. | हर हफ्ते 70 घंटे काम करने की सोच आपकी प्रोडक्टिविटी को कम कर सकती है, पढ़िए 8 नवंबर का एडिटोरियल

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2 घंटे पहले

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इंफोसिस के सह-संस्थापक एन. आर. नारायण मूर्ति ने एक चौंकाने वाले बयान में कहा कि युवाओं को कहना चाहिए कि “यह मेरा देश है। मैं हफ्ते में 70 घंटे काम करना चाहता हूं, ताकि मेरा देश और अधिक प्रतियोगी बनें।”

प्राइवेट सेक्टर के अन्य सदस्यों द्वारा इसका समर्थन किया गया है कि कैसे उद्योग चलाने वाले प्रवचन की आड़ में लाभ के अपने लालच को छुपाते हैं। सबसे जरूरी बात यह है कि, यह तर्क तीन परीक्षाओं पर विफल होता है।

नारायण मूर्ति ने पहला, गलत तर्क ये दिया कि काम के घंटे बढ़ाकर जर्मनी और जापान जैसे देश विकसित हुए हैं।

दूसरा, उन्होंने प्रोडक्टिविटी बढ़ाने का सारा भार कर्मचारियों के कंधे पर डाल दिया, जबकि सच्चाई यह है कि इनोवेशन में बहुत कम पैसा निवेश किया गया है। इनोवेशन काम की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए सबसे जरूरी है।

विकसित देश में बाजार तक पहुंच बनाने के लिए और कंपनियों को सप्लाई चैन में भागीदार बनाने के लिए ILS के नियमों का ध्यान रखना बहुत जरूरी है, इसलिए, ILS के नियमों का उल्लंघन भारत की कंपनियां को वैश्विक बाजार में अपनी उपस्थिति दर्ज करने से रोकेगा।

विकसित देशों में काम के घंटे

नारायण मूर्ति के तर्क के उलट विकसित देशों में पिछले 150 सालों से हर कर्मचारी के काम करने के घंटे में लगातार गिरावट आई है। 1870 में जर्मनी में हर हफ्ते काम करने का समय 68 घंटे से 59% घटकर, 2017 में 28 घंटे से भी कम रह गया।

1961 में जापान में हर हफ्ते 41 घंटे काम करना होता था, जो कि 2017 में घटकर 35 घंटे से कम हो गया है। काम करने के घंटे बढ़ती आय के साथ कम हो जाते हैं, क्योंकि लोग ऐसी चीजों को खरीद पाते हैं, जिसका वो आनंद ले सके और अधिक आराम कर सकें।

वास्तविकता में अधिक प्रोडक्टिविटी वाली अर्थव्यवस्था में कर्मचारी कम काम करते हैं, जबकि कम प्रोडक्टिविटी यानी गरीब अर्थव्यवस्था में खराब प्रोडक्टिविटी की भरपाई के लिए अधिक घंटे काम करना पड़ता है।

इसको अगर देखा जाए, तो ILO ने हमें याद दिलाया है कि काम करने के घंटे, काम करने का संस्थान और आराम करने का समय कर्मचारियों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर करता है।

काम करने के घंटे से जुड़ी समस्याएं और उनके नतीजे अर्थव्यवस्था के ऊपर व्यापक असर डालते हैं। भारत जैसे देश में जहां बड़ी युवा आबादी को भविष्य के विकास के लिए महत्वपूर्ण ताकत के रूप में देखा जाता है, नारायण मूर्ति के 70 घंटे प्रति हफ्ते काम करने के उपाय से ये जल्दी थक जाएगा।

इस विवाद को शुरू करने वाले प्राइवेट सेक्टर के प्रभावशाली लोगों को ये याद दिलाना जरूरी होगा कि किसी भी देश की प्रोडक्टिविटी का स्तर उसके इनोवेशन सिस्टम की मजबूती पर आधारित है।

नीति आयोग की इनोवेशन इंडेक्स 2021 से इस मामले की असलियत सामने आती है। 2018 में इस रिपोर्ट ने दिखाया कि भारत का ग्रॉस एक्सपेंडिचर ऑन रिसर्च ( GERD ), GDP के अनुपात में 0.65% था, जो दुनिया के सबसे निचले आंकड़ों में से एक था।

डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी ( DST ) के अनुसार यह 2020–21 में और नीचे यानी गिरके 0.64% हो गया।

DST (डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी) ने यह भी बताया कि प्राइवेट सेक्टर का हिस्सा देश के रिसर्च और डेवलपमेंट में हो रहे खर्च का 2020–21 में 41% था, जो कि 2012–13 में 45% था।

यह ध्यान देना चाहिए कि भारत की तुलना में वह देश, जिनके इनोवेशन सिस्टम ज्यादा मजबूत हैं, उनमें प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी और अधिक है।

जैसे की 2020 में, जापान और कोरिया में प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी 79% थी, US में 75% और जर्मनी तथा UK में 67% थी।

यहां तक की चीन में भी प्राइवेट सेक्टर की हिस्सेदारी 77% थी। ये आंकड़े पक्के तौर पर बताते हैं कि क्यों सामान्य तौर पर भारतीय कंपनियां वैश्विक बाजार में मुकाबला नहीं कर पाती और उनकी प्रोडक्टिविटी का स्तर नीचे रहता है।

ILS नियमों का महत्व

विकसित देश ILS के दो पक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों पर जोर दे रहे हैं, इसलिए यूरोपियन यूनियन ( EU ) और UK के साथ होने वाले मुक्त व्यापार समझौतों में ILS शामिल रहेगा।

यूरोपियन यूनियन (EU) द्वारा बातचीत की जानकारी सामने लाई गई, जिसमें कहा गया कि मुक्त व्यापार समझौते ( FTA ) के सदस्य भारत और EU, सभी के लिए संतोषजनक काम करने के वातावरण के अलावा भत्ता और कमाई को भी सुनिश्चित करेंगे। यह विचार ट्रेड एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट से लिए गया है। ILS इंडो–पेसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क फॉर प्रोस्पेरिटी ( IPEF ) को लागू करने के केंद्र में है।

यह 14 देशों का समूह है, जिसका भारत एक हिस्सा है और अमेरिका नेतृत्व कर रहा है। IPEF के सदस्यों ने सप्लाई चैन को मजबूत करने की नीयत से समझौता किया जिसमें, ऐसी सप्लाई चेन को बढ़ावा देने की बात की गई, जिसमें लेबर अधिकारों की बात हो, साथ ही स्थाई और जिम्मेदार सप्लाई के रिसोर्स के लिए बाजार भी तैयार किया जाएगा।

इस समझौते के अनुसार लेबर अधिकारों में ILO फंडामेंटल कन्वेंशन शामिल है।

मेहनत की न्यूनतम कीमत और काम के घंटे के आधार पर संतोषजनक वातावरण देना होगा। इसका अर्थ है कि भारतीय कंपनियां IPEF सदस्यों के सप्लाई चेन का हिस्सा तभी बन पाएंगी, जब लेबर अधिकारों का सम्मान करें।

सप्लाई चेन के नियम

अंत में, EU सदस्यों प्ले सप्लाई चेन पर नियम लागू किए हैं, जिसे ‘सप्लाई चेंज ड्यू डिलिजेंस’ कहा जाता है। इसके तहत कंपनियों को सभी प्रक्रियाओं में इस बात का ध्यान रखना होता है कि सप्लाई चेन में गुलामी, बच्चों से काम कराना, कर्मचारियों का शोषण और प्रकृति का नुकसान शामिल न हो।

फ्रांस में कॉर्पोरेट ड्यूटी का विजिलेंस लॉ 2017 लागू करके इस दिशा में पहल की गई है। यह कानून उन सभी फ्रेंच कंपनियों पर लागू है, जिनमें कम से कम 5000 कर्मचारी फ्रांस में और 10,000 कर्मचारी विश्व भर में सीधे या किसी सब्सिडियरी के जरिए जुड़े हों।

इन कंपनियों को ऐसे उपाय खोजने के लिए कहा गया है, जिससे खतरों को पहचान कर मानव अधिकार, बुनियादी आजादी, व्यक्तिगत स्वास्थ्य और सुरक्षा के उल्लंघन को रोका जा सके।

जर्मनी ने 2022 में सप्लाई चेन ड्यू डिलिजेंस एक्ट कानून लागू किया गया, जिसमें 3000 या उससे अधिक कर्मचारी वाली कंपनियों को मानव अधिकार और जबरन काम कराने जैसी समस्याओं की निगरानी को जरूरी बताया है।

यह न सिर्फ इन कंपनियों पर लागू है, बल्कि इनसे जुड़े सप्लायर पर भी लागू होता है। यह हर स्थिति में लागू होता है, भले ही काम जर्मनी में हो या विदेशों में।

इसी साल EU के सदस्य देशों ने कॉरपोरेट सस्टेनेबिलिटी ड्यू डिलिजेंस डायरेक्टर 2023 अपनाया। इसके तहत यह जरूरी हो गया कि कंपनियां बाल श्रम और लेबर शोषण के प्रभाव की पहचान करें, और जहां जरूरी हो इसे रोकने के प्रयास करें।

कंपनियों को वैल्यू चेन पार्टनर जैसे सप्लायर, सेल्स, यातायात, डिस्ट्रीब्यूशन और स्टोरेज पर अपने प्रभाव की जांच करनी चाहिए। जहां एक तरफ विकसित देश ILS को वैश्विक सप्लाई चेन में सख्ती के साथ लागू करना चाहते हैं, वहीं भारत अपने श्रम कानून को कमजोर नहीं कर सकता। भारत को अपने श्रम कानून कमजोर नही करना चाहिए, इसके ठोस कारण है।

लेखक: बिस्वजीत धर, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी नई दिल्ली के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं।

Source: The Hindu

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